मेजर ध्यानचंद
Atul Malikram
मेजर ध्यानचंद पहल के बारे में
भारत के लिए हॉकी खेलने वाले दिग्गज खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद को सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ खिलाडियों में से एक माना जाता है।
ध्यानचंद को इस खेल में महारत हासिल थी और वो गेंद को अपने नियंत्रण में रखने में इतने निपुण थे कि वो ‘हॉकी जादूगर’ और ‘द मैजिशियन’ जैसे नामों से प्रसिद्ध हो गए। मेजर ध्यानचंद ने अपनी हॉकी स्टिक से दुनियाभर में डंका बजाया था। जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर भी उनके फैन थे। ध्यानचंद हॉकी की दुनिया के पहले सुपरस्टार कहे जा सकते हैं जिन्होंने भारत को लगातार तीन ओलंपिक खेलों में गोल्ड मैडल जिताया था।
खेल जगत की एक ऐसी शख्सियत जिसका नाम विश्वभर में बेहद सम्मान के साथ लिया जाता है, उसे भारत देश में जायज सम्मान आज तक नहीं मिल पाया है। ट्रूपल के साथ देशभर के तमाम खेल व हॉकी प्रेमी मेजर ध्यानचंद को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किये जाने की मुहीम को बल दे रहे हैं। हमारी केंद्र सरकार व जिम्मेदार राजनेताओं से मांग है कि हॉकी के इस जादूगर को उनका जायज सम्मान दिया जाए और उन्हें ‘भारत रत्न’ के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाज़ा जाए।
इसके आलावा मेजर ध्यानचंद के नाम पर उनकी कर्मभूमि झांसी में स्थित दद्दा की पहाड़ी को उचित संरक्षण प्रदान किया जाये, ताकि यह सम्मानित स्थल व मेजर ध्यानचंद की विरासत को नशे व अवैध कामों का गढ़ बनने से बचाया जा सके। देशभर में ऐसे अन्य स्मारक स्थल बनाये जाएँ ताकि भारत व खेल के लिए इतिहास के पन्नों में दर्ज मेजर ध्यानचंद के योगदान को नई पीढ़ी में संचित किया जा सके।
हॉकी खेलने की शुरुआत:
प्रचलित लेखों के अनुसार, अपनी बटालियन के सूबेदार बाले तिवारी से ध्यानचंद ने हॉकी खेलने की इच्छा ज़ाहिर की थी। बाले तिवारी ने सहयोग किया और ध्यानचंद को ट्रेनिंग दी। कुछ ही समय में ध्यानचंद बटालियन के सबसे अच्छे हॉकी प्लेयर बन गए। 1926 में सेना चाहती थी कि हॉकी टीम न्यूज़ीलैंड जाए। इसके लिए खिलाड़ियों की तलाश शुरू हुई और ध्यानचंद का चयन भी हो गया। ध्यानचंद के जीवन का ये टर्निंग पॉइंट था। न्यूज़ीलैंड में कुल 121 मैच खेले गए। इसमें भारत 118 मैच जीतने में कामयाब हुआ। भारत ने कुल 192 गोल दागे, जिसमें 100 गोल सिर्फ़ मेजर ध्यानचंद के थे। यहीं से ध्यानचंद की प्रतिभा का लोहा माना जाने लगा।
हॉकी का जादूगर:
1928 में एम्सर्टडम ओलंपिक में ध्यानचंद भारतीय टीम का हिस्सा थे। बताया जाता है कि हॉकी संघ के पास पर्याप्त पैसे नहीं थे। ऐसे में बंगाल हॉकी संघ आगे आया और आर्थिक मदद की। उधार लेकर मैच खेलने पहुंची टीम वर्ल्ड चैंपियन बन चुकी थी। विदेशी अख़बारों में ‘जादू’, ‘जादूगर’, ‘जादू की छड़ी’ जैसे शब्द छप चुके थे और यहीं से ध्यानचंद को ‘हॉकी का जादूगर’ कहा जाने लगा।
हॉकी स्टिक पर उठे सवाल:
1928 में ही हॉलैंड में ध्यानचंद के प्रदर्शन के बाद दूसरी टीम के खिलाड़ियों सहित कई लोगों ने ध्यानचंद की हॉकी स्टिक पर सवाल उठाया। उनकी स्टिक को तोड़कर जांचा गया कि उसमें चुंबक तो नहीं लगा। ये सिर्फ इसलिए था कि ध्यानचंद की स्टिक के पास बॉल आने के बाद वह सीधे गोल पर ही दिखाई देती थी। वो ड्रिबल नहीं करते थे, बल्कि हर एंगल से बॉल को गोल में पहुंचाने की क्षमता रखते थे।
हिटलर से मुलाकात और जर्मनी से खेलने के प्रस्ताव को ठुकराना:
साल 1936, इस साल वह ओलंपिक टूर्नामेंट आया, जिसकी चर्चा भारतीय टीम की जीत के लिए कम, बल्कि ध्यानचंद और हिटलर की मुलाकात के लिए अधिक होती है। साल 1936 के इस टूर्नामेंट में ध्यानचंद कप्तान थे। यह पहला ओलंपिक था, जिसे टीवी पर दिखाया गया था। ये हिटलर का दौर था। 15 अगस्त को भारत और जर्मनी के बीच मुकाबला हुआ। मैच के दौरान ध्यानचंद के दांतों में चोट लग गई। थोड़ी देर मैदान के बाहर रहे लेकिन फिर लौट आये। इसके बाद उन्होंने ताबड़तोड़ गोल दागे। भारत ने जर्मनी को ये मैच 1 के मुकाबले 8 गोल से हराया। कहा जाता है कि हिटलर बीच मैच में ही मैदान छोड़कर चला गया था। फिर ओलंपिक सम्मान समारोह में हिटलर की मुलाकात ध्यानचंद से हुई, हिटलर उनसे बहुत प्रभावित था। उसने ध्यानचंद को अपनी सेना में जनरल पद का ऑफ़र दिया लेकिन ध्यानचंद ने इसे ठुकरा दिया, साथ ही जर्मनी टीम से हॉकी खेलने की बात भी उन्होंने नहीं स्वीकार करी।
चाँद से मिला चंद नाम
ध्यानचंद रात को चांद की रौशनी में प्रैक्टिस किया करते थे, जिसे देखकर उनके साथी खिलाड़ी बड़ा आश्चर्यचकित होते थे। उनकी मेहनत व लगन को देखते हुए उनके नाम के आगे चांद शब्द जुड़ गया जो धीरे धीरे ध्यानचंद में तब्दील हो गया।
ध्यानचंद के अंतिम क्षण:
कहते हैं कि इंसान ने अपनी ज़िंदगी में क्या हासिल किया है, वह उसके अंतिम दिन में मालूम पड़ता है। इस क्रम में ध्यानचंद ने यह हासिल किया कि उनकी अंतिम यात्रा में झांसी जैसे छोटे ज़िले में क़रीब 1 लाख लोग पहुंचे थे। कहा जाता है कि पुलिस की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उनका अंतिम संस्कार स्टेडियम में ही हुआ। इसके लिए सेना तक को बुलाना पड़ा। शव को अग्नि देने से पहले उन पर हॉकी स्टिक और गेंद रखी गई थी।
हम सोशल मीडिया के माध्यम से मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न दिए जाने के लिए जन समर्थन प्राप्त कर रहे है, और सत्ता के जिम्मेदार शीर्ष से जन भावनाओं का सम्मान किये जाने का निवेदन कर रहे हैं।